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कहानियां
- आदिवासी कथाएं
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कहानी की कहानी
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कहानी का उद्भव और विकास
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कहानी की कहानी
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कह मां कह
एक कहानी
हां मां राजा था या रानी?
मैथिलीशरण
गुप्त "यशोधरा'
अकथ कहानी
प्रेम की, कहता कही नहिं जाई।
गूंगा के रि सरकरा, खाय औ
मुसुकाई।
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- कबीर
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कहानी का उद्भव और विकास
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कह मां कह
एक कहानी,
बेटा समझ लिया क्या तूने?
मुझको अपनी नानी?
कहती थी
मुझसे यह चेटी
तू मेरी नानी की बेटी
कह माँ कह लेटी ही लेटी
राजा था या रानी?
कह माँ कह एक कहानी।
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- बाबू
मैथिलीशरण गुप्त "यशोधरा'
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आज से दूर...
बहुत दूर... जब आदिम मानव ने आग
में मांस को भुनते हुये चारों
ओऱ बैठ कर अपने लोगों को हाव
भाव मुद्राओं और ध्वनियों से अपने
शिकारी जीवन के रोमांच पूर्ण
अनुभवों को बताया होगा, तब
अनजाने में कहानी का जन्म हो गया
होगा। कथा-रस मानव की मूल जात
प्रवृत्ति है। वह आप-बीती कहना
चाहता है और पर-बीती सुनना
चाहता है। "मेरी तेरी और उसकी
बात' में कहानी का रचना विधान खिल
उठता है। इसी कथा तत्व से सभ्यता व
संस्कृतियों का विकास होता है।
जीवन
एक अधूरी कहानी है। वह किसी भी
प्रश्न को उठाकर उसका पूरा उत्तर नहीं
देती। किसी ओर इशारा करती है।
पाठक अपनी सहृदयता और चिन्तना से
उसका अर्थ ढूँढ़ लेता है। वह जीवन के
आकाश में इन्द्रधनुषीछ्टा है,
सत्यासत्य से परे एक रंग भरा
कमनीय सौन्दर्य जो थोड़ी देर में
बिला जाता है, पर सदा के लिये
हमारे मानस-पटल पर रमणीय चित्र
आंक जाता है। सदा खीचें रहने के
लिये। थके-हारे छणों में हमारे
मुरझाय प्राणों को अपने सरस और
सुन्दर स्पर्श से फिर से नवजीवन
भर देने के लिये। इसलिए आदिम
युग से कथा की एक निरंतर अविरल
धारा बहते चली आ रही है। जब तक
मानव है तब तक कथा भी है। स्वयं
कबीर दास जी ने कहा है -
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अकथ कहानी
प्रेम की, कहता कही नहिं जाई।
गूंगा केरि सरकरा, खाय और
मुसुकाई।।
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- कबीर
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प्रारंभ
से ही आदिम मानव ने अपने चारों
ओर फैली प्रकृति को समझना चाहा
है। कभी यदि थोड़ा समझ सका तो
वह खुशी से झूम उठा। पर जब समझ
न पाया तो कभी भयभीत हुआ तो
कभी चकित, कभी स्तब्ध रहा तो कभी
उद्वेलित। प्रकृति के साथ अपने जीवन
को ताल मेल बैठाने के लिये कभी
उसने वन्दना और अर्चना की। तो कभी
खुश करना चाहा। कभी उसने सखा,
दोस्त और बन्धु बना लिया। कभी
प्रकृति खिलते फूलों के बहाने
मानव की खुशी को चित्रित करती, तो
कभी आँसुओं से भीगकर अपनी
शबनमा आभा फैला देती है। कभी
अपनी खूशबू से मानव के प्राणों को
महका देती, तो कभी उसकी उदासी से
पतझड बन जाती। कभी वह उसके जीवन
की बसन्त की बहार बनती, तो कभी
जीवन के भीषण घात और प्रतिघात्
में मेघ बन गर्जती, बिजली बन
कौंधती और अंत में नीरद बन कर
सखा-मानव को अपनी करुणा वारि से
भीगों देती और उसका संताप हर
लेती। वह भीगता वह पिघल-पिघल
कर बहता जाता और अपनी इस
प्राण-सखी से वह अनुरोध करता।
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हे सखी इस
पावन अंचल से
मुझको भी नीज-मुख ढक कर
अपनी विस्मृत सुखद गोद में
सोने दो सुख से क्षण भऱ।।
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-
सुमित्रानंदन पंत
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सतगुरु
हमसूँ रीझि करी, इक कह्या
परसंग।
बलसा बादल प्रेम का, भीजि गया सब
अंग।
बरसा बादल प्रेम का, हम पर
बरसा आया।
अन्तर भीगी आत्मा, हरि भई वण
राई।।
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-
कबीर
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इन
गिरिजनों में, जो प्रकृति की गोद मं
अपना जीवन बिताते हैं कथा और
कहानी की परम्परा भी इनके जीवन
के साथ विकसित होती रही है। यह
कथा की मौखिक परम्परा है। और
इसका सम्बन्ध उसके प्रकृति जीवन के
सुख-दुख, हानि-लाभ के साथ है।
उसमें प्रकृति की तरह ही सहजता,
सरलता, और स्वच्छंदता हैं। हमें
उनकी कहानियाँ अधिकतर फन्तासी के
रुप में दिखाई पड़ती है, पर इसमें
उनके जीवन का यथार्थ होता है।
इस संकलन
में (जीवन-जगत, मानव, भोजन, देव,
पारस्परिक-संबंध आदि) के बारे में
विभिन्न आदिवासियों की कुछ
कहानियां संकलित की गयी हैं। इन
कहानियों में वनवासियों के जीवन
की असंख्य झाँकियां प्रतिबिम्बित हैं।
इनमें उनके
शरीर का ताप है, उनके दिल की धड़कन
है। उनके राग भरे जीवन की
गुनगुनाहट है। यदि कहीं उनके दारुण
संघर्ष की रोमांचकारी स्थितियां
हैं तो कहीं भोले मानस के
जीवन-स्वप्न हैं, तो कहीं
गिरि-बालाओं की प्राण भरी, मधुर,
स्वर लहरी।
उनका
प्राकृत जीवन और उसकी नैसर्गिक
छटा-कहानी बन कर बोल उठी है।
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सुनता हूं
बड़े गौर से, अफसाने ये हस्ती,
कुछ ख्वाब है, कुछ अस्ल है, कुछ तरजे
बंया है।
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